Another favorite poem from school book.
चिड़िया को लाख समझाओ,
कि पिंजरे के बाहर,
धरती बहुत बड़ी है, निर्मम है।
वहाँ हवा में उसको
अपने जिस्म की गंध तक नहीं मिलेगी।
यूँ तो बाहर समुद्र है, नदी है, झरना है
पर पानी के लिए भटकना है,
यहाँ कटोरे में भरा जल गटकना है।
बाहर दाने का टोटा है,
यहाँ चुग्गा मोटा है।
बाहर बहेलिये का डर है,
यहाँ निर्द्वंद कंठ स्वर है।
फिर भी चिड़िया
मुक्ति का गाना गाएगी,
पिंजरे से जितना अंग निकल सकेगा, निकालेगी
हरसूँ जोर लगाएगी,
और पिंजरा टूट जाने या खुल जाने पर,
उड़ जायेगी।
(डॉ. सर्वेश्वर दयाल सक्सेना)
Courtesy: Antarayan
मुक्ति की आकांक्षा
कि पिंजरे के बाहर,
धरती बहुत बड़ी है, निर्मम है।
वहाँ हवा में उसको
अपने जिस्म की गंध तक नहीं मिलेगी।
यूँ तो बाहर समुद्र है, नदी है, झरना है
पर पानी के लिए भटकना है,
यहाँ कटोरे में भरा जल गटकना है।
बाहर दाने का टोटा है,
यहाँ चुग्गा मोटा है।
बाहर बहेलिये का डर है,
यहाँ निर्द्वंद कंठ स्वर है।
फिर भी चिड़िया
मुक्ति का गाना गाएगी,
पिंजरे से जितना अंग निकल सकेगा, निकालेगी
हरसूँ जोर लगाएगी,
और पिंजरा टूट जाने या खुल जाने पर,
उड़ जायेगी।
(डॉ. सर्वेश्वर दयाल सक्सेना)
Courtesy: Antarayan